
आज से सावन शुरू पहला कांवडिया कौन
- आशुतोष कुमार सिंह, ब्यूरो चीफ बिहार
- Jul 22, 2024
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ब्यूरो चीफ सुनील कुमार की रिपोर्ट
रोहतास-- सावन का महीना शुरू होते ही गंगा में डुबकी लगाने वाले भक्तों की हूजूम उमड पड़ती है। जो गंगा में डुबकी के बाद कांवड़ लेकर बाबा बैद्यनाथ धाम एवं रोहतास के गुप्ताधाम में भक्तों का तांता लग जाता है। इस संबंध में काशी काव्य संगम रोहतास जिला संयोजक कवि सुनील कुमार रोहतास ने बताए कि सावन के शुरुआती ही केसरिया कपड़े पहने शिवभक्तों के जत्थे गंगा का पवित्र जल शिवलिंग पर चढ़ाने निकल पड़ते हैं। पिछले दो दशकों से कावड़ यात्रा की लोकप्रियता बढ़ी है। और अब समाज का उच्च एवं शिक्षित वर्ग भी कांवड़ यात्रा में शामिल होने लगा है। लेकिन क्या आप जानते हैं कि क्या है कांवड़ यात्रा का इतिहास? कौन थे सबसे पहले कांवड़िया? इसे लेकर कवि सुनील कुमार बताते हैं कि अलग-अलग क्षेत्रों में अलग-अलग मान्यता है।इसके बारे में विस्तार से बताते हुए कवि सुनील कुमार ने बताए कि परशुराम थे पहले कांवड़िया
कुछ विद्वानों का मानना है कि सबसे पहले भगवान परशुराम ने उत्तर प्रदेश के बागपत के पास स्थित ‘पुरा महादेव’ का कांवड़ से गंगाजल लाकर जलाभिषेक किया था। परशुराम इस प्रचीन शिवलिंग का जलाभिषेक करने के लिए गढ़मुक्तेश्वर से गंगा जी का जल लाए थे। आज भी इस परंपरा का पालन करते हुए सावन के महीने में गढ़मुक्तेश्वर से जल लाकर लाखों लोग 'पुरा महादेव' का जलाभिषेक करते हैं। गढ़मुक्तेश्वर का वर्तमान नाम ब्रजघाट है।
इसके बाद उनका मानना है कि श्रवण कुमार थे पहले कांवड़िया वहीं कुछ विद्वानों का कहना है कि सबसे पहले त्रेतायुग में श्रवण कुमार ने पहली बार कांवड़ यात्रा की थी। माता-पिता को तीर्थ यात्रा कराने के दौरान श्रवण कुमार हिमाचल के ऊना क्षेत्र में थे जहां उनके अंधे माता-पिता ने उनसे मायापुरी यानि हरिद्वार में गंगा स्नान करने की इच्छा प्रकट की। माता-पिता की इस इच्छा को पूरी करने के लिए श्रवण कुमार अपने माता-पिता को कांवड़ में बैठा कर हरिद्वार लाए और उन्हें गंगा स्नान कराया। वापसी में वे अपने साथ गंगाजल भी ले गए। इसे ही कांवड़ यात्रा की शुरुआत माना जाता है।
कुछ मान्यताओं के अनुसार भगवान राम पहले कांवड़िया थे। उन्होंने बिहार के सुल्तानगंज से कांवड़ में गंगाजल भरकर बाबाधाम जो देवघर के नाम से भी जाना जाता है वहां शिवलिंग का जलाभिषेक किया था।
रावण ने की थी इस परंपरा की शुरुआत पुराणों के अनुसार कांवड़ यात्रा की परंपरा समुद्र मंथन से जुड़ी है। समुद्र मंथन से निकले विष को पी लेने के कारण भगवान शिव का कंठ नीला हो गया और वे नीलकंठ कहलाए। लेकिन विष के नकारात्मक प्रभावों ने शिव को घेर लिया। शिव को विष के नकारात्मक प्रभावों से मुक्त कराने के लिए उनके अनन्य भक्त रावण ने ध्यान किया। उसके बाद कांवड़ में जल भरकर रावण ने 'पुरा महादेव' स्थित शिवमंदिर में शिवजी का जलाभिषेक किया। इससे शिवजी विष के नकारात्मक प्रभावों से मुक्त हुए और यहीं से कांवड़ यात्रा की परंपरा की शुरुआत हुई।
देवताओं ने सर्वप्रथम शिव का किया था जलाभिषेक
कुछ मान्यताओं के अनुसार समुद्र मंथन से निकले हलाहल के प्रभावों को दूर करने के लिए देवताओं ने शिव पर पवित्र नदियों का शीतल जल चढ़ाया था। सभी देवता शिवजी पर गंगाजी से जल लाकर अर्पित करने लगे। सावन मास में कांवड़ यात्रा का प्रारंभ यहीं से हुई। सावन के पहले सोमवार को ही भक्तों का जनसैलाब गुप्ता बाबा धाम के लिए हजारों रवाना हुए हैं। जिसमें बहुत भक्तों के द्वारा बक्सर गंगा घाट से जल लाकर भगवान गुप्तेश्वर नाथ पर चढ़ाया जाता है।
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