पश्चिमी यूपी जिसके साथ , राज्य की सत्ता उसके हाथ, पश्चिमी यूपी पर विशेष रिपोर्ट

मुंबई।। पांच राज्यों में चुनावी बिगुल बजने के साथ सबकी निगाहें उत्तर प्रदेश पर आ टिकी हैं। कहा जाता है कि केंद्र की सत्ता का रास्ता यूपी से होकर गुजरता है और पश्चिमी यूपी सूबे की सत्ता तक पहुंचाती है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश का मतदान ही सूबे के बाकी हिस्सों में ट्रेंड बनने वाला है, जैसा कि 2017 और उसके पहले के विधानसभा चुनावों में देखने को मिला है। 2017 में इस इलाके की 85 फीसद सीट भाजपा ने जीती थी। लेकिन, यह 2013 के मुजफ्फरनगर दंगा और 2014 के मोदी मैजिक की छाया से निकल कर आई थी, जो इस बार नहीं है।

पश्चिमी उत्तर प्रदेश की 136 विधानसभा सीटों में से 113 पर पहले और दूसरे चरण में क्रमश: 10 और 14 फरवरी को मतदान होगा। इतिहास बताता है कि इन्हीं दो चरणों के मतदान के ट्रेंड पर सूबे की आगे की चुनावी दिशा तय होती है। पिछले विधानसभा चुनाव में पहले और दूसरे चरण में इलाके की 71 विधानसभा सीटों पर मतदान हुए थे। इसमें से 51 भाजपा के पक्ष में गई थीं। जिसमें मेरठ मंडल की 28 में से 25 भाजपा को, तीन सीटें सपा-बसपा और रालोद को। सहारनपुर मंडल की 16 सीटों में से 12 भाजपा को, चार सीटें सपा-कांग्रेस को और मुरादाबाद मंडल की 27 सीटों में 14 भाजपा को और 13 सीटें सपा-बसपा के पक्ष में गई थीं। यही ट्रेंड आगे के चरणों में चला और भाजपा सुनामी बन गई। प्रचंड बहुमत के साथ सूबे के सत्ता में पहुंची।

2017 में भाजपा की सुनामी - उत्तर प्रदेश में 2017 का पहला चुनाव था, जिसमें भाजपा को 300 से ज्यादा सीटें मिलीं और कोई भी विपक्षी दल 50 का आंकड़ा पार नहीं कर सके। 2012 में उत्तर प्रदेश में जहां भाजपा की 47 सीटें थीं, 2017 में सपा इसी आंकड़े पर सिमट कर प्रमख विपक्षी बनकर रह गई। भाजपा की इस सुनामी के पीछे 2013 का मुजफ्फरनगर दंगा और 2014 की मोदी मैजिक की आंधी प्रमुख कारण था। पहले और दूसरे चरण में ही भाजपा हिंदू-मुस्लिम के मुद्दे पर पूरे चुनाव का साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण करने में सफल रही थी। माहौल ऐसा बना कि जाट बहुल इस इलाके में जाटों की पार्टी कही जाने वाली राष्ट्रीय लोकदल को भी सीट के लाले पड़ गए थे। पूरे इलाके में रालोद को केवल एक सीट मिली थी, जो बागपत जिले की छपरौली थी। बाद में यह इकलौता रालोद विधायक भी भाजपा में शामिल हो गया। इस तरह इलाके में भाजपा की 52 सीटें हो गई थीं।

इस बार अलग है समीकरण- इस बार अलग समीकरण दिख रहा है। पहला, तीनों कृषि कानूनों के खिलाफ करीब एक साल तक चले किसान आंदोलन का सबसे ज्यादा असर पश्चिमी उत्तर प्रदेश पर पड़ा है। दिल्ली के गाजीपुर सीमा पर धरना दिए बैठे किसानों का नेतृत्व भारतीय किसान यूनियन ने किया था, जिसका पश्चिमी उत्तर प्रदेश के गांव-गांव में गहरा असर है। आंदोलन का नेतृत्व करने वाले राकेश टिकैत इसी इलाके से आते हैं। दूसरा, गन्ना भुगतान को लेकर केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार और सूबे की आदित्यनाथ योगी सरकार ने जो वादे किए, वह अब तक पूरा नहीं हुआ। न तो गन्ने की सही कीमत मिली और न ही चीनी मिलों पर बकाया पूरा भुगतान ही किसानों हो पाया। इलाके के किसान नाराज हैं। तीसरा, इस बार 2013 जैसा कोई दंगा नहीं हुआ। इसके चलते भाजपा को साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण करना आसान नहीं दिख रहा। 2013 के दंगे के चलते जाट और मुस्लिमों में जो दूरियां बन गई थीं, वह किसान आंदोलन के बाद काफी कम हुआ दिख रहा है। उस दंगे में रालोद प्रमुख चौधरी अजीत सिंह से अपेक्षित सहयोग नहीं मिलने से जाटों में नाराजगी थी। इस बार ऐसा नहीं दिखता। चौधरी अजीत सिंह के निधन के चलते रालोद के प्रति जाटों में एक सहानुभूति भी दिखती है। चौथा, सपा और रालोद इस बार साथ-साथ हैं। जाट-मुस्लिम का पुराना समीकरण दोबारा बन गया तो यह गठबंधन सूबे की पूरी चुनावी सियासत बदल सकती है। पांचवां, पिछले चुनाव में भाजपा का प्रचार ब्रांड मोदी पर केंद्रित था। इस बार सूबे की पांच साल और केंद्र की सात साल की भाजपा सरकार के खिलाफ विभिन्न मुद्दों को लेकर सत्ता विरोधी लहर भी है।

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