कहां खो गया ‘वो’ मेरा गांव

राकेश पांडेय की कलम से 

तेजी से भागते जा रहे समय के साथ हमारे विचार, रहन-सहन, वेशभूषा एवं परिवेश में भी तीव्र गति से बदलाव आ रहा है. विकास की आंधी में गांवों की भौगोलिक स्थिति में भी परिवर्तन देखने को मिल रहा है. गांवों के चेहरे शहरों के शक्ल लेते जा रहे हैं. गांवों से घास-फूस से बनी झोपड़ियां गायब हो गईं हैं. जंगल उजड़ गए हैं. उनकी जगह मकान खड़े हो गए हैं. हर मकान के सामने से गुजर रही सड़कें एवं नालियां शहर का एहसास करा रही हैं. इसी तेजी से बदल रहे गांवों का असर हमारे त्यौहारों एवं पर्वों पर पड़ रहा है. बचपन में त्यौहारों की लंबी फेहरिस्त हुआ करती थी. बारिश शुरू होते ही पर्वों की श्रृंखला शुरू होती थी तो होली पर्व के बाद ही खत्म होती थी. इन त्यौहारों का अपना अलग-अलग महत्व हुआ करता था. जिसका बड़ी बेसब्री से लोगों विशेष कर बच्चों को इंतजार रहता था. सावन का महीना शुरू होते ही जगह-जगह मेलों का आयोजन हुआ करता था. इन मेलों में कुश्ती का आयोजन होता था, जहां पर पहलवान अपनी कलाओं का प्रदर्शन करते थे. इन दंगलों को देखने के लिए दूर-दराज से लोग इकट्ठा होते थे. पहलवानों के साथ ही उस गांव के लोग भी कुश्तीबाजों का उत्साहवर्धन करने के लिए मेले में आया करते थे. कभी-कभी तो निर्णय को लेकर लाठियां चटकने लगती थीं.

एक वाक्या का वर्णन आप लोगों के सामने कर रहा हूं. नागपंचमी के दिन जनपद प्रतापगढ़ के अन्तू स्थित जलालपुर के पास सरायशंकर में कुश्ती का आयोजन किया गया था. इस दंगल में नामी-गिरामी पहलवान आये थे. कई पहलवानों ने अपनी कला से उपस्थितों को खूब मनोरंजन कराया. लेकिन इसी बीच किसी बात को लेकर सरायशंकर के ठाकुरों एवं हरिजनों में लाठियां चटकने लगीं. मची भगदड़ में कई लोगों की टांगे टूट गईं तो कई लोग जमीन पर गिर पड़े. इसमें हम लोगों के साथ आए लोग भी घायल हो गये. इसके बाद हम लोग वहां से अपने-अपने घर पहुंचे. घर पहुंचने पर परिजनों ने खूब डांट पिलाई.

नागपंचमी के 10 दिन पहले से ही पटोहा (झूला) डालने की तैयारियां शुरू हो जाती थीं. इस झूले में मोटी रस्सी और एक लकड़ी का पटरा लगता था. यह सामान सभी के पास नहीं हुआ करता था. इसलिए जिनके पास यह सामान रहता था, उसको तैयार करने में भी बच्चों को कड़ी मशक्कत करनी पड़ती थी. गुड़िया (नागपंचमी) के दिन सुबह सभी बच्चे पेड़ के नीचे इकट्ठे हो जाते थे, इनमें इतनी कौतूहल रहती थी कि बिना कहे ही कार्य करने के लिए भागते रहते थे. झूला पड़ते ही सबसे पहले बच्चों को मौका दिया जाता था. इसके बाद बड़े-बूढ़ों का नंबर आता था. इसी दौरान सुबह ही छोटे बच्चों के लिए लंबी कूद एवं कुश्ती का आयोजन होता था. इसमें बच्चे अपनी ताकत का एहसास मां-बाप को कराते थे.  बाजी मारने वाले बच्चों के मां-बाप का सीना गर्व से चौड़ा हो जाता था. दोपहर को स्नान करने के लिए पूरे गांव के लोग नदी तट पर पहुंच जाते. स्नान के बाद तरह-तरह के बनाए गए व्यंजनों का स्वाद सभी लोग लेते. दोपहर बाद सभी लोग आल्हा गाने के लिए आस-पास के गांवों में ढोल मजीरे के साथ निकल जाते थे. शाम को अपने-अपने घर पहुंचते थे. 

लेकिन अब तो सभी त्यौहारों के मायने ही बदल गए हैं. नागपंचमी कब बीत जाती है, किसी को पता ही नहीं चलता. न गांवों में अखाड़े दिखते हैं और ही कुश्ती के मैदान. सही पूछो तो इनमें अब बच्चों की रुचि भी नहीं रही. अब बच्चे मोबाइल में ही कैद हो कर रह गए हैं. यही साधन इनकी दिनचर्या का हिस्सा बन गया है. यही कारण है कि बच्चों में वह ताकत भी नहीं रही, जो आज के युवाओं में है. अगले अंक में फिर किसी त्यौहार का विवरण प्रस्तुत करने का प्रयास करूंगा.

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